भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन (1857 ई. से 1918 ई. तक)
भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आंदोलन (1857 ई. से 1918 ई. तक)
1857 से 1918 के बीच भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का क्रांतिकारी चरण भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण कालखंड है। यह वह समय था जब देश की जनता ने अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों की नींव रखी। भारतीय स्वतंत्रता के इस संघर्ष की शुरुआत 1857 के विद्रोह से मानी जाती है, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। इस कालखंड के दौरान कई क्रांतिकारी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने स्वतंत्रता की भावना को और अधिक सशक्त किया।
1857 का विद्रोह: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला अध्याय
1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला बड़ा संगठित प्रयास था, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है। यह विद्रोह मुख्य रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुचित नियमों और नीतियों के खिलाफ था। विद्रोह की शुरुआत भारतीय सिपाहियों द्वारा की गई थी, जिन्हें ब्रिटिश सेना में काम करने के बावजूद अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ता था।
विद्रोह की चिंगारी उस समय भड़की जब सैनिकों को दिए गए नए एनफील्ड राइफलों की कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी होने की अफवाह फैली। धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन होता देख, भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किया। मेरठ से शुरू होकर यह विद्रोह दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, झांसी और कई अन्य क्षेत्रों में फैल गया।
बहादुर शाह जफर, अंतिम मुगल सम्राट, को विद्रोह का प्रतीकात्मक नेता घोषित किया गया। रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तांत्या टोपे, बेगम हजरत महल जैसे वीर नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। हालांकि यह विद्रोह सफल नहीं हो पाया, परंतु इसने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता में एक गहरी असंतोष की भावना को जन्म दिया।
1857 के विद्रोह के बाद का क्रांतिकारी आंदोलन
1857 का विद्रोह असफल होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में प्रत्यक्ष शासन की घोषणा की। अंग्रेजों ने अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए नए कानून बनाए और दमनकारी नीतियों को लागू किया। इस समय के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे-छोटे क्रांतिकारी आंदोलनों की शुरुआत हुई।
1860 और 1870 के दशक में भारतीय समाज में राष्ट्रीयता की भावना तेजी से बढ़ी। अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी विचारधारा ने देश के युवा वर्ग में स्वतंत्रता की भावना को और सशक्त किया। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, जो स्वतंत्रता संग्राम के अहिंसात्मक आंदोलन का नेतृत्व करने वाली मुख्य संस्था बनी। लेकिन क्रांतिकारी युवा वर्ग को यह धीमा मार्ग अस्वीकार्य लगा, और वे सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे।
बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का उदय
बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन का विशेष महत्व रहा है। 1905 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया, जिसने जनता में आक्रोश को जन्म दिया। इस विभाजन ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया, जिसके तहत विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और स्वदेशी वस्त्रों का उपयोग शुरू हुआ। इसी समय बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों की लहर उठी।
अनुशीलन समिति और युगांतर जैसे संगठनों का गठन हुआ, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था। इन संगठनों के सदस्य ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले करने और अंग्रेजी सरकार को अस्थिर करने के प्रयास में जुटे। 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड पर बम फेंका, हालांकि इसमें किंग्सफोर्ड बच गया। खुदीराम बोस को बाद में गिरफ्तार कर फांसी दे दी गई।
बंगाल के इन क्रांतिकारियों ने युवा वर्ग में क्रांति और स्वतंत्रता की भावना को जागृत किया। उनका मानना था कि ब्रिटिश साम्राज्य को केवल सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से ही उखाड़ा जा सकता है।
पंजाब और महाराष्ट्र में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
बंगाल की तरह पंजाब और महाराष्ट्र भी क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रमुख केंद्र बने। पंजाब में लाला लाजपत राय, भगत सिंह, और अन्य क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने क्रांतिकारी आंदोलन को और तेज कर दिया।
गदर पार्टी, जो भारतीय अप्रवासियों द्वारा 1913 में अमेरिका और कनाडा में स्थापित की गई थी, ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई। गदर पार्टी के सदस्य भारत लौटे और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने इन योजनाओं को विफल कर दिया और कई गदर पार्टी के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया।
महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक जैसे नेता ने राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता के संदेश को फैलाया। तिलक का नारा "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" भारतीय युवाओं में जोश भरने वाला सिद्ध हुआ। उनकी गिरफ्तारी के बाद देशभर में उनके समर्थन में आंदोलन हुए।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)
1920 के दशक की शुरुआत में क्रांतिकारी गतिविधियाँ और भी संगठित हुईं। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद, और अन्य क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना की। HRA का उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से भारत को आजाद कराना था।
1925 में काकोरी कांड हुआ, जिसमें क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाना लूट लिया। इस घटना ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया। बाद में कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया और रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, और अन्य को फांसी दी गई।
क्रांतिकारी आंदोलनों का महत्व
1857 से 1918 के बीच क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। इन आंदोलनों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया और अंग्रेजों के खिलाफ संगठित विरोध की नींव रखी। क्रांतिकारी नेताओं ने अपने साहस और बलिदान से यह साबित किया कि स्वतंत्रता की कीमत किसी भी हद तक चुकाई जा सकती है।
हालांकि, क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लेने वालों की संख्या सीमित थी, लेकिन उनके संघर्ष ने आने वाले वर्षों में स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी। क्रांतिकारियों के संघर्ष ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों को भी स्वतंत्रता की लड़ाई को और तेज करने के लिए प्रेरित किया।
इन क्रांतिकारी आंदोलनों का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने भारतीय जनता के मन में यह विश्वास पैदा किया कि ब्रिटिश शासन को उखाड़ा जा सकता है। 1918 के बाद महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन ने एक अहिंसात्मक रूप ले लिया, लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रभाव स्वतंत्रता की लड़ाई में हमेशा महसूस किया गया।
निष्कर्ष
1857 से 1918 के बीच का क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस कालखंड में क्रांतिकारियों ने अपने साहस, बलिदान और समर्पण से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। उनका संघर्ष और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने में सफल हुआ। भारतीय स्वतंत्रता के इस क्रांतिकारी संघर्ष ने यह साबित कर दिया कि देश की जनता किसी भी हद तक जाकर अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है।
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