भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास:नरमपंथियों से उग्रपंथियों तक का सफर


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना 1885 में हुई थी, और यह भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई का प्रमुख मंच बन गई। लेकिन यह संगठन समय के साथ विकसित होता गया, और इसके भीतर विभिन्न विचारधाराओं का उदय हुआ। शुरुआती दिनों में कांग्रेस नरमपंथी विचारधारा का अनुसरण करती थी, लेकिन जैसे-जैसे देश की स्वतंत्रता की मांग तेज होती गई, संगठन के भीतर उग्रपंथियों का प्रभाव बढ़ता गया। इस ब्लॉग में हम कांग्रेस के नरमपंथियों से उग्रपंथियों तक के सफर का विश्लेषण करेंगे और जानेंगे कि कैसे इन दोनों धड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम को प्रभावित किया।

1. नरमपंथी युग: प्रारंभिक दिन और सिद्धांत

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुरुआती दिनों में, संगठन के नेता मुख्य रूप से नरमपंथी विचारधारा का पालन करते थे। नरमपंथियों में प्रमुख रूप से दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, और फिरोजशाह मेहता जैसे नेता शामिल थे। इन नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश शासन के अधीन रहकर भी भारतीयों को संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। वे ब्रिटिश सरकार के साथ संवाद और विचार-विमर्श के माध्यम से सुधार लाने के पक्षधर थे। नरमपंथियों का मानना था कि धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से, ब्रिटिश सरकार भारतीयों की मांगों को मान लेगी और उन्हें अधिक अधिकार और स्वतंत्रता देगी।

2. नरमपंथियों की रणनीति और आंदोलन

नरमपंथियों ने भारतीय जनता को राजनीतिक रूप से जागरूक करने के लिए कई अभियानों का आयोजन किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को याचिकाएं दीं, मेमोरंडम प्रस्तुत किए, और सुधारों की मांग की। दादा भाई नौरोजी ने "गरीबी का सिद्धांत" पेश किया, जिसमें उन्होंने भारत से ब्रिटेन द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण का खुलासा किया। गोपाल कृष्ण गोखले ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और समाज सुधार के मुद्दों पर जोर दिया और ब्रिटिश सरकार से इन क्षेत्रों में सुधार की मांग की। लेकिन उनकी शांतिपूर्ण और संवैधानिक रणनीति से स्वतंत्रता संग्राम में तेज़ी नहीं आ पा रही थी, और इस वजह से कांग्रेस के भीतर असंतोष बढ़ने लगा।

अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें :

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और आधुनिक भारत 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुरुआती नेता

ए.ओ. ह्यूम की भूमिका

3. उग्रपंथियों का उदय: एक नई दिशा

1905 में बंगाल विभाजन के साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उग्रपंथी विचारधारा का उदय हुआ। बंगाल विभाजन ने पूरे देश में आक्रोश की लहर पैदा कर दी, और इसने कांग्रेस के भीतर उग्रपंथी नेताओं के लिए जगह बनाई। उग्रपंथियों में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, और अरबिंदो घोष प्रमुख थे। इन नेताओं का मानना था कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अधिक आक्रामक और प्रभावी उपाय अपनाए जाने चाहिए। उनका नारा था, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।"

4. उग्रपंथियों की रणनीति और आंदोलन

उग्रपंथियों ने नरमपंथियों की शांतिपूर्ण रणनीतियों को खारिज कर दिया और उन्होंने सीधे कार्रवाई का आह्वान किया। तिलक ने "स्वराज्य" और "स्वदेशी" के विचारों को बढ़ावा दिया और ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार करने की अपील की। उन्होंने लोगों को विदेशी कपड़ों और उत्पादों का त्याग करने और स्वदेशी वस्त्रों और वस्तुओं को अपनाने के लिए प्रेरित किया। लाला लाजपत राय ने पंजाब में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन किए, जबकि बिपिन चंद्र पाल ने बंगाल में जनता को संगठित किया। उग्रपंथियों के नेतृत्व में कई आंदोलन हुए, जिनमें स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार आंदोलन, और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन प्रमुख थे।

5. नरमपंथियों और उग्रपंथियों के बीच तनाव

नरमपंथियों और उग्रपंथियों के बीच विचारधारात्मक मतभेद धीरे-धीरे बढ़ने लगे। नरमपंथी नेताओं का मानना था कि उग्रपंथी गतिविधियां कांग्रेस की साख को नुकसान पहुंचा सकती हैं और इससे ब्रिटिश सरकार के साथ संवाद का रास्ता बंद हो सकता है। दूसरी ओर, उग्रपंथियों का मानना था कि नरमपंथियों की रणनीतियां विफल हो रही हैं और उन्हें एक नई दिशा की जरूरत है। इस विचारधारात्मक संघर्ष ने 1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस को विभाजित कर दिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई—नरमपंथी और उग्रपंथी।

6. नरमपंथियों की पुनरावृत्ति और उग्रपंथियों का प्रभाव

हालांकि सूरत अधिवेशन के बाद नरमपंथियों का प्रभाव कुछ समय के लिए कम हो गया, लेकिन जल्द ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक नया दौर शुरू हुआ। गांधीजी ने उग्रपंथियों की आक्रामकता और नरमपंथियों की संवैधानिकता के बीच एक संतुलन स्थापित किया। उन्होंने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। गांधीजी के नेतृत्व में, कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई सफल आंदोलनों का संचालन किया, और अंततः 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली।

7. कांग्रेस का विकास और आधुनिक भारत

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने विकास के दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे। नरमपंथियों और उग्रपंथियों के बीच संघर्ष ने कांग्रेस को एक सशक्त और प्रभावी संगठन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस ने भारतीय समाज में राजनीतिक जागरूकता का प्रसार किया, और इसने स्वतंत्रता संग्राम को एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया। आजादी के बाद, कांग्रेस ने राष्ट्र निर्माण के कार्य में भी अहम भूमिका निभाई और आधुनिक भारत की नींव रखी।

8. निष्कर्ष

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नरमपंथियों से उग्रपंथियों तक का सफर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस यात्रा ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, बल्कि इसने भारतीय समाज में राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता को भी बढ़ावा दिया। नरमपंथियों और उग्रपंथियों के संघर्ष और सहयोग ने कांग्रेस को एक सशक्त संगठन बनाया, जिसने भारत की स्वतंत्रता और आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कांग्रेस के इस विकास ने भारतीय राजनीति और समाज को गहराई से प्रभावित किया, और इसके प्रभाव आज भी भारतीय राजनीति में दिखाई देते हैं।

               

कोई टिप्पणी नहीं